New Delhi : भारतीय समाज में अभी भी बेटियों को अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई बाधाओँ को पार करना होता। उसमें से ही एक बाधा हमारे समाज में मौजूद सामंती सोच है जो लड़कियों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं जैसे मसलों को तय करती है। उसमें से एक पढ़ाई लिखाई का सवाल भी है। ऐसी सोच रखने वाले समाज को लड़कियों का 10वीं या 12वीं तक पढ़ना तो हजम हो जाता है, लेकिन अगर इसके आगे की पढ़ाई की बात उठती है तो कह दिया जाता है कि लड़कियां इतना पढ़-लिख कर क्या करेंगी।
ये समाज एक घर के आस पास ही लड़कियों को पढ़ाने के लिए तो किसी तरह राजी हो जाता है लेकिन जब बात बाहर जाकर पढ़ने की होती है, तो उन्हें अक्सर अपने सपनों से समझौता करना पड़ता है। कुछ यही कहानी आईएएस अनुराधा पाल की रही, जिन्हें पढ़ाई के लिए समाज से ही नहीं अपने घर वालों से भी संघर्ष करना पड़ा। लेकिन उनका साथ दिया उनकी मां ने जो खुद तो नहीं पढ़ पाईं पर अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए अपने परिवार से लड़ गईं। उनकी मां ने यहां तक कह दिया था कि अगर मेरी बेटी को इस घर में रहकर नहीं पढ़ने दिया जाएगा तो मैं घर छोड़ दूंगी। अनुराधा की मां का ये संघर्ष बेकार नहीं गया। अनुराधा जब आइएएस ऑफिसर बनी तो उनपर पूरे गांव को गर्व हुआ। उत्तराखंड में एसडीएम रहते हुये वे लोगों के दिलों में बस गईं और खनन माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई कर लेडी सिंघम का खिताब भी हासिल कर लिया।
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Posted by Anuradha Pal IAS on Friday, July 19, 2019
हरिद्वार की रहने वाली अनुराधा बेहद साधारण परिवार से हैं। उनके पिता दूध बेचकर परिवार का भरण पोषण करते थे, वहीं उनकी मां एक ग्रहणी हैं। घर में कोई पढ़ाई लिखाई का माहौल नहीं था मां अनपढ़ थी और पिता पांचवी पास। गांव में बाकी परिवार की तरह उनका परिवार भी यही चाहता था कि जल्द बिटिया बड़ी हो और उसकी शादी कर अपना फर्ज निभा लिया जाए। अनुराधा बाकी बच्चों के मुकाबले पढ़ने में तेज थीं, बिटिया में इस गुण को देखते मां खूब खुश होती और उसकी पढ़ाई के मामले में अक्सर उसका पक्ष लेती। अनुराधा ने जब सरकारी स्कूल से पांचवी पास की तो जवाहर नवोदय विद्यालय का फॉर्म भरवा दिया गया। अनुराधा ने परीक्षा पास कर ली, लेकिन घरवाले बेटी को बाहर नहीं भेजना चाहते थे। इसके पीछे उनकी मां अड़ गईं और बेटी को पढ़ने भेजा। वहां से अनुराधा ने 12वीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद आईआईटी रुड़की में एडमिशन लिया तो अब पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे। मां ने लोन लेकर बिटिया का एडमिशन कराया।
इसके बाद अनुराधा ने यूपीएससी परीक्षा देने का मन बनाया जिसकी तैयारी के लिए वो दिल्ली आ गईं। उन्हें अपनी आर्थिक स्थिति का पता था इसलिए उन्हें जल्द से जल्द कोई नौकरी चाहिए थी। पैसों की कमी के चलते अनुराधा ने दिल्ली आकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और अपनी पढ़ाई का खर्च खुद ही उठाने लगीं। 2012 में वो पहली बार परीक्षा में बैठी और सफल रहीं। परिवार से लेकर गांव वालों तक सबको खबर पहुंची तो सब भौंचक्के रह गए। अनुराधा को परीक्षा में 451वीं रेंक मिली जिस कारण उन्हें आई.आर.एस का पद मिला।
इससे वो संतुष्ट नहीं थी लेकिन उन्होंने दो साल यही नौकरी की और फिर से तैयारी कर 2015 में वो फिर से परीक्षा में बैठीं। इस बार उन्हें 62वीं रेंक मिली जो कि काफी बेहतर थी और इस बार उन्हें अपनी पसंद की पोस्ट मील गई। अनुराधा अपनी सफलता के श्रेय अपनी मां को देते हुए कहती हैं कि उन्होेंने मेरे लिए बहुत से बलिदान दिए हैं। आज पूरे परिवार को उन पर गर्व है।