घर में नहीं थे दाने- पापा ने कचरा बीन बेटे को पढ़ाया, पहले प्रयास में पास की एम्स परीक्षा, डॉक्टर बनेगा

New Delhi : वो लड़का जिसके पास घर नहीं नहीं था उसका परिवार टीन, चादर की आड़ में रहता था। जिसके पिता के पास कोई स्थायी काम नहीं था, पिता कभी दूसरों के खेतों में मजदरी, कभी बोझा उठाकर और कभी कचरा बीनकर परिवार का किसी तरह भरण पोषण करते। जिस घर में कभी-कभी एक बार का खाना भी नहीं बनता था, घर में दो बच्चे थे जिन्हें पिता अपने साथ ही काम पर ले जाते क्योंकि अगर उन्हें स्कूल भेजते तो उनके खाने का इंतजाम कैसे करते।

पिता को जब पता चला कि स्कूल में खाना मिलता है तो उन्होंने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया ताकि कम से कम उन्हें एक टाइम का खाना तो मिल सके। इन बातों से आप इस घर की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। लेकिन अगर आपसे कहा जाए कि इसी घर का लड़का मेडिकल जैसी खर्चीली पढ़ाई में जाने का फैसला करता है और इस लाइन की सबसे कठिन और जरूरी परीक्षा एम्स को पास कर एमबीबीएस की तैयारी कर डॉक्टर बनने का सपना देखता है तो शायद आपको इस बात पर यकीन करना भी मुश्किल होगा। लेकिन असंभव दिखने वाली हर चीज को जो संभव में बदलता है वही कामयाब हो पाता है और ऐसा करने वाले आज के हमारे हीरों हैं आशाराम चौधरी। जो कि अपने पिता की अंधेरी जिंदगी में आशा के एक दीप की तरह रौशन हुए।

आशाराम चौधरी ने 2018 यानी दो साल पहले मेडिकल लाइन की सबसे कठिन समझी जाने वाली एम्स प्रवेश परीक्षा को पास किया तो ये हीरा जैसे रातों रात चमक गया हो। हर अखबार में उनकी खबर छपी कि गरीब का बेटा अब डॉक्टर बन गरीबों का इलाज करेगा। एम्स प्रवेश परिक्षा को पास करने वाले मेडिकल के विद्यार्थियों को देश के सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल संस्थान एम्स में पढ़ाई कर डॉक्टर बनने का अवसर मिलता है। इस परीक्षा को हर साल लाखों छात्र पास करने और इस ड्रीम इंस्टीट्यूट में एडमिशन लेने के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन परीक्षा इतनी कठिन होती है कि यहां सबका सिलेक्शन नहीं हो पाता। इस परीक्षा को देने के लिए छात्र लाखों रुपये ट्यूशन में खर्च करते हैं। अब सवाल है कि आर्थिक स्थिति से इतने कमजोर घर का लड़का यहां तक कैसे पहुंच गया। इसका जवाब है अपने सपने के प्रति जुनून से, अपनी मेहनत से। आशाराम चौधरी और उनका परिवार मध्यप्रदेश के देवास जिले में विजय गंज मंडी के पास रहता है। इसी विजय गंज मंडी के पास ढेर सारे कचरा बीनने वाले लोग रहते हैं। उनकी रोजी रोटी का साधन यही कचरा होता है। इन्हीं लोगों में शामिल थे आशाराम चौधरी के पिता रंजीत जिन्होंने कई सालों तक यहां कचरा बीना और परिवार का भरण पोषण किया।

आशाराम का पूरा परिवार दो वक्त के खाने के लिए कभी कचरा बीनता तो कभी दूसरों के खेतों में काम करता। आशाराम का बचपन भी इसी काम को करते हुए बीता। खाने के लालच में पिता ने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया था लेकिन गांव के सरकारी स्कूल की हालत आज सब जानते हैं। लेकिन आशाराम बचपन से ही पढ़ने में होनहार था। उसने किसी तरह सरकारी स्कूल से पांचवी पास कर ली। उनके परिवार की इस स्थिति को आशाराम के एक टीचर ने समझा और आशाराम को सही मार्गदर्शन देने का प्रयास किया। इसी प्रयास में आशाराम के उस टीचर ने उसे जवाहर नवोदय विद्यालय की तैयारी करवाई। परिवार वालों को इसके बारे में समझाया और परिणाम ये हुआ कि आशाराम का नवोदय में सिलेक्शन हो गया। यहां से आशाराम की 12वीं तक की पढ़ाई पूरी हुई। यहां शुरूआत से ही आशाराम मेडिकल की उन किताबोंं में रुचि लेता जिसमें हमारे शरीर के बारे में बताया जाता है। यही रुचि आगे चलकर उसका पैशन बना गई।

आशाराम को शुरूआत में नहीं पता था उसे करना क्या है एक दिन जब वो बीमार पड़ा तो उसके पिता उसे डॉक्टर के पास ले गए। आशाराम के इलाज करने के एवज में डॉक्टर ने पिता से 50 रुपये लिए आशाराम को ये बात अंदर तक चुभ गई। आशाराम ने सोचा मेरे पिता दिन पर मेहनत कर 50 रुपये कमाते हैं और इस डॉक्टर ने थोड़े से ही समय में वो रुपये ले लिए। उस दिन आशाराम ने डॉक्टर बनने का निर्णय कर लिया था। नवोदय से 12वीं पास कर निकलने के बाद उसे क्लियर था कि मेडिकल लाइन में जाने के लिए या तो नीट या एम्स की परीक्षा देनी होती है। आशाराम ने बिना तैयारी के ही नीट की परीक्षा दी जिसे वो पास तो नहीं कर पाया पर अपने सभी दोस्तों से उसने अच्छा प्रदर्शन किया। इस बीच उनका बीपीएल कार्ड बन गया जिस कारण उनका एडमिशन दक्षिण फाउंडेशन में हो गया जो कि एक एनजीओ है जो गरीब परिवार के बच्चों को प्रतियोगी व मेडिकल परीक्षा के लिए तैयारी कराता है।

यहां से तैयारी कर आशाराम ने एम्स प्रवेश परीक्षा दी और सफल हुए नतीजतन, आज आशाराम एम्स जोधपुर में एमबीबीएस (MBBS) के स्टूडेंट हो गए हैं और अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई को पूरा कर रहे हैं। उनकी इस सफलता की तारीफ प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में जब की तो पूरे देश का ध्यान उनके जीवन पर गया।

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