New Delhi : दुनिया के मोस्ट वांटेड क्रिमिनल्स में से एक दाऊद इब्राहिम को हमेशा से ही ऐसा लगता रहा कि ऋषि कपूर ने उसके नाम को महान बना दिया। और एकबार इसके लिये उसने स्पेशली ऋषि कपूर से दुबई में मुलाकात की और उनको बताया कि वह उनका कितना बड़ा फैन है। यह साल 1988 की बात है, मुम्बई ब्लास्ट से 5 साल पहले की। उस समय दाऊद देशद्रही नहीं बना था और दुबाई आनेवाले अधिकांश इंडियन वीआईपी से कोई न कोई जुगाड़ करके मिला करता था। इस पूरे वाकये का खुलासा खुद दिवंगत ऋषि कपूर ने अपनी बॉयोग्राफी बायोग्राफी ‘खुल्लम खुल्ला : ऋषि कपूर अनसेंसर्ड’ में किया हुआ है। बताते हैं कि ऋषि कपूर दाऊद से होनेवाली अपनी मुलाकातों की वजह से डीडे में दाऊद का रोल इतनी सहजता से निभा गये थे। फिल्म में कहीं लगा ही नहीं कि सामने वाला शख्स दाऊद नहीं है।
ऋषि कपूर ने ‘खुल्लम खुल्ला’ में लिखा – दाऊद को मेरी फिल्म तवायफ काफी पसंद आई थी। इसका जिक्र करते हुए उसने कहा था मुझे ‘तवायफ’ काफी पसंद आई, क्योंकि उसमें तुम्हारा नाम दाऊद था। दाऊद का कहना था कि फिल्म से मैंने उसके नाम को महान बना दिया है। दाऊद ने कहा कि वह मेरे फादर, मेरे अंकल, दिलीप कुमार, महमूद, मुकरी जैसे एक्टर्स को काफी पसंद करता है। दाऊद से मिलने जाने से पहले तक मैं काफी डरा हुआ था, लेकिन वहां जाने के बाद मैंने काफी रिलेक्स फील किया।
खुल्लम खुल्ला में ऋषि ने अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम से उनकी मुलाकात के बारे में कई रोचक खुलासे भी किये हैं। वे लिखते हैं – फेम ने मुझे कई अच्छे लोगों से कॉन्टेक्ट कराया, तो वहीं कुछ संदिग्ध लोगों से भी मिलवाया। उन लोगों में एक दाऊद इब्राहिम भी था। बात साल 1988 की है। मैं अपने क्लोज फ्रेंड बिट्टू आनंद के साथ दुबई गया था जहां मुझे आशा भोसले और आरडी बर्मन का नाइट प्रोग्राम अटेंड करना था। दाऊद का एक आदमी एयरपोर्ट पर रहता था जो उसे वीआईपी लोगों की खबरें देता था। तभी एक अजनबी शख्स ने मेरे पास आकर मुझे फोन दिया और कहा- दाऊद साहब बात करेंगे। मुझे नहीं लगता था कि दाऊद भागा हुआ था और न ही वह स्टेट का दुश्मन था। दाऊद ने मेरा स्वागत किया और कहा – किसी भी चीज की जरूरत हो तो बस मुझे बता देना। उसने मुझे अपने घर भी बुलाया। मैं भौंचक्का था।
ऋषि आगे लिखते हैं – कुछ समय बाद मुझे एक लड़के से मिलवाया गया जो ब्रिटिश जैसा दिखता था। वह बाबा था, दाऊद का राइट हैंड। उसने मुझसे कहा- दाऊद साहब आपके साथ चाय पीना चाहते हैं। मुझे इसमें कुछ गलत नहीं लगा और मैंने न्यौता स्वीकार कर लिया। उस शाम मुझे और बिट्टू को हमारे होटल से एक चमकती हुई रोल्स रॉयस में ले जाया गया। वहां बात कच्छी भाषा में हो रही थी मुझे समझ नहीं आ रहा था, लेकिन मेरा दोस्त समझता था। हमें सर्कल में ले जाया गया था इसलिए हमें लोकेशन सही से समझ नहीं आई। दाऊद ने मुलाकात के दौरान सूट पहना हुआ था। आते ही उसने कहा कि मैं ड्रिंक नहीं करता इसलिए आपको चाय पर बुलाया। इसके बाद हमारा चाय और बिस्किट का सेशन 4 घंटे चला। दाऊद से मेरी कई सारी बातें हुईं, जिसमें उसकी क्रिमिनल एक्टिविटीज भी शामिल थीं। इन पर उसे कोई पश्चाताप नहीं था। उसने मुंबई कोर्ट मर्डर का जिक्र करते हुए कहा – उस शख्स को मैंने इसलिए शूट किया था, क्योंकि वह अल्लाह शब्द के खिलाफ जा रहा था। और मैं अल्ला का बंदा हूं इसलिए मैंने उसे शूट किया। इस रियल लाइफ मर्डर सीन को बाद में फिल्म अर्जुन (1985) में फिल्माया गया।
इस ऑटोबायोग्राफी में ऋषि कपूर ने अमिताभ बच्चन और उनके रिश्ते को लेकर भी कई चौंकानेवाले खुलासे किये हैं। ऋषि ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में लिखा है – अमिताभ बच्चन एक महान एक्टर हैं। 1970 की शुरुआत में उन्होंने फिल्मों का ट्रेन्ड ही बदल दिया। एक्शन की शुरुआत ही उन्हीं से होती है। उस वक्त उन्होंने कई एक्टर्स को बेकार कर दिया। मेरी फिल्मों में एंट्री 21 साल की उम्र में हुई। उन दिनों अमिताभ और मेरे बीच एक अनकहा तनाव रहा करता था। हमने कभी उसे सुलझाने की कोशिश नहीं की लेकिन वह तनाव अपने आप खत्म भी हो गया। इसके बाद हमने साथ में ‘अमर अकबर एंथनी’ की और फिल्म के बाद तो हमदोनों में गहरी दोस्ती हो गई।
उन्होंने लिखा है – जीतेंद्र से तो मेरे रिलेशन अच्छे थे, लेकिन अमिताभ और मेरे संबंधों में तल्खी थी। मैं उनके साथ अनकम्फर्टेबल महसूस करता था। वे मुझसे 10 साल बड़े थे, लेकिन मैं उन्हें अमितजी की जगह अमिताभ ही बुलाता था। शायद मैं बेवकूफ था। ‘कभी-कभी’ की शूटिंग के वक्त तो न मैं उनसे बात करता था और न ही वे। हालांकि, बाद में सब ठीक हो गया और हमारे रिश्ते बेहद अच्छे हो गए। अब तो उनसे फैमिली रिलेशनशिप है। उनकी बेटी श्वेता की शादी मेरी बहन रितु नंदा के बेटे निखिल से हुई है।
ऋषि ने ‘खुल्लम खुल्ला’ में लिखा है – ऐसा लगता है कि ‘बॉबी’ के लिए मुझे बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिलने से अमिताभ निराश हो गए थे। उन्हें लगा था कि ये अवॉर्ड ‘जंजीर’ के लिए जरूर मिलेगा। दोनों ही फिल्में एक ही साल (1973) में रिलीज हुई थीं। मुझे ये कहते हुए शर्म आती है कि मैंने वह अवॉर्ड खरीदा था। दरअसल उस वक्त में भोला-भाला सा था। तारकनाथ गांधी नामक एक पीआरओ ने मुझसे कहा, सर 30 हजार दे दो, तो मैं आपको अवॉर्ड दिलवा दूंगा। मैंने बिना कुछ सोचे उन्हें पैसे दे दिए। मेरे सेक्रेटरी घनश्याम ने भी कहा था, सर, पैसे दे देते हैं। मिल जायेगा अवॉर्ड। इसमें क्या है। अमिताभ को बाद में किसी से पता चला कि मैंने अवॉर्ड के लिए पैसे दिये थे। मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि 1974 में मैं महज 22 साल का था। पैसा कहां खर्च करना है, कहां नहीं, इसकी बहुत समझ नहीं थी। बाद में मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। कभी-कभी के दौरान रिलेशन में गर्मजोशी न होने की एक और कहानी है। अमिताभ फिल्म में सीरियस रोल में थे। जबकि मेरा रोल थोड़ा उलट था। फिल्म में मैं खिलंदड़ा किस्म का हूं। अमिताभ रोल में गंभीरता बनाये रखने के लिये सेट पर अलग-थलग रहते थे। शायद सच तो ये है कि मैंने अवॉर्ड खरीदा था, सबने ये जान लिया था।