New Delhi : कृष्ण नाम के साथ गाय, चरवाहे, खेती और किसानी की कथाएं देखकर तथा यह देखकर कि उनके भाई बलराम हल लेकर चलते हैं, पश्चिम के विद्वानों ने यह अनुमान लगाया था कि पहले कृष्ण फसल और वनस्पति के देवता रहे होंगे। मगर, भारतीय पंडित इस अनुमान को नहीं मानते। कृष्ण नाम बहुत प्राचीन है। पाणिनि (7वीं सदी ईपू) ने एक जगह कृष्ण और अर्जुन का उल्लेख धार्मिक नेता के रूप में किया है। मेगस्थनीज (ईपू 3सरी सदी) कहता है कि मथुरा और कृष्णपुर में कृष्ण की पूजा होती है। महानारायण उपनिषद (200 ईपू) का प्रमाण है कि कृष्ण उस समय विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे।
"उधर श्याम घन हैं….इधर घनश्याम है"
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पतंजलि (150 ईपू के लगभग) के भाष्य में भी वासुदेव का उल्लेख आर्य-जाति के देवता के रूप में मिलता है। बेसनगर-शिलालेख (ईपू तृतीय या द्वितीय सदी) से मालूम होता है कि भागचन्द्र महाराज के समय हेलियोदारे ने वासुदेव की पूजा के लिए, गरुड़ध्वज के रूप में, उस स्तम्भ की स्थापना की थी। इस लेख में वासुदेव को देवों का देव कहा गया है।
कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष हैं, इसमें सन्देह करने की कोई गुंजाइश नहीं दीखती और वे अवतार के रूप में पूजित भी बहुत दिनों से चले आ रहे हैं। उनका सम्बन्ध फसल और गाय से था, यह भी विदित बात है। प्राचीन ग्रन्थों में उनके साथ जो प्रेम की कथाएं नहीं मिलती, उससे भी यही प्रमाणित होता है कि वे कोरे प्रेमी और हलके जीव नहीं, बल्कि देश और समाज के बहुत बड़े नेता थे। अवश्य ही, गोपाल-लीला, रास और चीर-हरण की कथाएं तथा उनका रसिक-रूप बाद के भ्रान्त कवियों और आचारच्युत भक्तों की कल्पनाएं हैं जिन्हें इन लोगों ने कृष्ण-चरित में जबर्दस्ती ठूंस दिया। शकों के ह्रास-काल में जिस प्रकार, महादेव का रूपान्तर लिंग में हुआ, उसी प्रकार, गुप्तों के अवनति-काल में वासुदेव का रूपान्तर व्यभिचारी गोपाल में हुआ।
Krishna is the most colorful incarnation – an irrepressible child, an irresistible lover, a truly valiant warrior, an astute statesman, and a yogi of the highest order. #SadhguruQuotes #KrishnaJanmashtami pic.twitter.com/bAAbs8IU0j
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प्राचीनतम भारतीय-साहित्य और शिल्प में श्रीकृष्ण की श्रृंगार-लीलाओं का प्रमाण नहीं मिलता, इस विषय की विशद विवेचना करते हुए पं हजारीप्रसादजी द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘मध्यकालीन धर्म-साधना’ में लिखा है कि “श्रीकृष्णावतार के दो मुख्य रूप हैं। एक में वे यदुकुल के श्रेष्ठ रत्न हैं, वीर हैं, राजा हैं, कंसारि हैं। दूसरे में वे गोपाल हैं, गोपी-जन-वल्लभ हैं, ‘राधाधर-सुधापान-शालि-वनमालि’ हैं। प्रथम रूप का पता बहुत पुराने ग्रन्थों से चल जाता है। पर, दूसरा रूप अपेक्षाकृत नवीन है। धीरे-धीरे वह दूसरा रूप ही प्रधान हो गया और पहला रूप गौण। विद्वानों ने अश्वघोष को निम्नलिखित पंक्ति में गोपाल-कृष्ण का सबसे पुराना प्रामाणिक उल्लेख बताया है- ‘ख्यातानि कर्माणि च यानि सौरेः शूरादयस्तेष्वबला बभूवुः।’ कालिदास ने ‘गोपवेषस्य विष्णोः’ की चर्चा की है। महाभारत के सभापर्व (68वें अध्याय) में द्रौपदी ने वस्त्राकर्षण के समय भगवान को जिन अनेक नामों से पुकारा, उनमें ‘गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय’ भी है। किंतु, कुछ लोग इस अंश को प्रक्षिप्त मानते हैं। परन्तु, हरिवंश में तो कृष्ण गोपाल की चर्चा में लगभग बीस अध्याय लिखे गये है। तब भी, श्रीकृष्ण के दुष्ट-दमन-रूप का प्राधान्य उसमें बना हुआ है। विष्णुपुराण में भी लगभग ये ही बातें हैं। भागवत में अनेक अन्य प्रसंगों को जोड़ा गया है।” आगे द्विवेदीजी कहते हैं, “मूर्ति-शिल्प में भी आरम्भ में श्रृंगार-लीलाओं का उतना प्राधान्य नहीं दीखता। कहा जाता है कि ईसवी सन् की दूसरी शताब्दी से पहले की कोई भी मूर्ति या उत्कीर्ण भित्ति-चित्र श्रीकृष्ण से सम्बद्ध नहीं मिला है।
To all celebrating around the world, I want to wish you a very Happy Janmashtami! May we always be blessed with remembrance of Sri Krishna, His unconditional love, and His transcendental appearance in this world. Jai Sri Krishna! #HappyJanmashtami #KrishnaJanmashtami pic.twitter.com/gh69gw5Xe4
— Tulsi Gabbard 🌺 (@TulsiGabbard) August 11, 2020
मथुरा में श्रीकृष्ण के जन्म का उत्कीर्ण चित्र प्राप्त हुआ है, जो सम्पूर्ण नहीं है। चौथी शताब्दी से श्रीकृष्णलीला की प्रमुख कथाएं बहुत लोकप्रिय हो गयी थीं, ऐसा जान पड़ता है। मन्सोर मन्दिर के टूटे हुए दो द्वार-स्तम्भ प्राप्त हुए हैं, जिनमें गोवर्धन-धारण, नवनीत-चौर्य, शकट-भंग, धेनुक-वध और कालिय-दमन की लीलाएं उत्कीर्ण हैं। विद्वानों का मत है कि इसका निर्माण-काल ईसवी-सन् की चौथी या पांचवी शताब्दी होगा। सम्भवतः चौथी शताब्दी की एक और गोवर्धनधारी मूर्ति मथुरा में प्राप्त हुई है। महाबलीपुरम में भी गोवर्धनधारी की उत्कीर्ण मूर्ति मिली है। ऐसा जान पड़ता है कि गोवर्धन-धारण श्रीकृष्ण की सर्वप्रिय लीला उन दिनों रही होगी। इस प्रकार, शिल्प और साहित्य दोनों की गवाही से यही पता चलता है कि, आरम्भ में, श्रीकृष्ण की वीर-चर्चा ही प्रधान थी।” कृष्ण का प्राचीनतम उल्लेख पहले छान्दोग्य उपनिषद में और तब महाभारत में मिलता है। इन दोनों ग्रन्थों में श्रीकृष्ण के रसिक रूप की चर्चा है ही नहीं। (राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के संस्कृति के चार अध्याय से साभार)