श’हीद भगत सिंह : भारत माता का वो महान सपूत जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी

New Delhi : 28 सितंबर 1907 को जन्में भगत सिंह में देशभक्ति के संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए थे। एक बार उनके पिता सरदार किशन सिंह उन्हें अपने मित्र मेहता के खेत में लेकर चले गए। दोनों मित्र बातों में मशगूल हो गए। इस बीच भगत सिंह ने खेल-खेल में खेत में छोटी-छोटी डोलियों पर लकड़ियों के छोटे छोटे तिनके गाड़ दिए। यह देखकर मेहता हतप्रभ रह गए। उन्होंने पूछा कि यह क्या बो दिया है, भगत? बालक भगत ने तपाक से उत्तर दिया कि मैंने बन्दूकें बोई हैं। इनसे अपने देश को आजाद कराऊंगा।

कमाल की बात यह है कि उस समय भगत की उम्र मात्र तीन वर्ष ही थी। भारत माँ को परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने वाले इस लाल की ऐसी ही देशभक्ति के रंग में रंगी अनेक मिसालें हैं।  पाँच वर्ष की आयु हुई तो उनका नाम पैतृक बंगा गांव के जिला बोर्ड प्राइमरी स्कूल में लिखाया गया। जब वे ग्यारह वर्ष के थे तो उनके साथ पढ़ रहे उनके बड़े भाई जगत सिंह का असामयिक निधन हो गया। इसके बाद सरदार किशन सिंह सपरिवार लाहौर के पास नवाकोट चले आए। प्राइमरी पास कर चुके बालक भगत सिंह को सिख परम्परा के अनुसार खालसा-स्कूल की बजाय राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिलवाया गया। इसी दौरान 13 अप्रैल, 1919 को वैसाखी वाले दिन ‘रौलट एक्ट’ के विरोध में देशवासियों की जलियांवाला बाग में भारी सभा हुई। जनरल डायर के क्रूर व दमनकारी आदेशों के चलते निहत्थे लोगों पर अंग्रेजी सैनिकों ने ताड़बतोड़ गोलियों की बारिश कर दी। इस अत्याचार ने देशभर में क्रांति की आग को और भड़का दिया।

भगत सिंह ने अमृतसर के जलियांवाला बाग की रक्त-रंजित मिट्टी की कसम खाई कि वह इन निहत्थे लोगों की हत्या का बदला अवश्य लेकर रहेगा। सन् 1920 में गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन चलाया और देशवासियों से आह्वान किया कि विद्यार्थी सरकारी स्कूलों को छोड़ दें व सरकारी कर्मचारी अपने पदों से इस्तीफा दे दें। उस समय नौंवी कक्षा में पढ़ रहे भगत सिंह ने सन् 1921 में गांधी जी के आह्वान पर डी.ए.वी. स्कूल को छोड़ लाला लाजपतराय द्वारा लाहौर में स्थापित नैशनल कॉलेज में प्रवेश ले लिया। इस कॉलेज में आकर भगत सिंह यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, रामकिशन, तीर्थराम, झण्डा सिंह जैसे क्रांतिकारी साथियों के सम्पर्क में आए। कॉलेज में लाला लाजपत राय व परमानंद जैसे देशभक्तों के व्याख्यानों ने देशभक्ति का अद्भुत संचार किया। कॉलेज के प्रो. विद्यालंकार जी भगत सिंह से विशेष स्नेह रखते थे। वस्तुतः प्रो. जयचन्द विद्यालंकार ही भगत सिंह के राजनीतिक गुरु थे। भगत सिंह उन्हीं के दिशा-निर्देशन में देशभक्ति के कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभाते थे।
इसी समय घरवालों ने भगत सिंह पर शादी का दबाव डाला तो उन्होंने विवाह से साफ इनकार कर दिया। जब हद से ज्यादा दबाव पड़ा तो देशभक्ति में रमे भगत सिंह देश की आजादी के अपने मिशन को पूरा करने के उद्देश्य से 1924 में बी.ए. की पढ़ाई अधूरी छोड़कर कॉलेज से भाग गए। फिर वे केवल और केवल देशभक्तों के साथ मिलकर स्वतंत्रता के संघ’र्ष में जूट गए। कॉलेज से भागने के बाद भगत सिंह सुरेश्चन्द्र भट्टाचार्य, बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए। इसी के साथ भगत सिंह उत्तर प्रदेश व पंजाब के क्रांतिकारी युवकों को संगठित करने में लग गए।

भगत सिंह के परिवार वालों ने काफी खोजबीन करके भगत सिंह से लिखित वायदा किया कि वह घर वापिस आ जाए, उस पर शादी करने के लिए कोई दबाव नहीं डाला जाएगा। परिवार वालों के इस लिखित वायदे व दादी जी के सख्त बीमार होने के समाचार ने भगत सिंह को वापिस घर लौटने के लिए बाध्य कर दिया। घर आकर वे पंजाब भर में घूम-घूमकर समाज की समस्याओं से अवगत होने लगे। सन् 1925 के अकाली आन्दोलन ने भगत सिंह को फिर सक्रिय कर दिया। अंग्रेज सरकार ने झूठा केस तैयार करके भगत सिंह के नाम गिरफ्तारी वारन्ट जारी कर दिया। भगत सिंह पंजाब से लाहौर पहुंच गए और क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय होकर अंग्रेज सरकार की नाक में दम करने लगे।
आगे चलकर इन्हीं देशभक्त व क्रांतिकारी भगत सिंह ने कुछ काले बिलों के विरोध में असेम्बली में बम फेंकने जैसी ऐतिहासिक योजना की रूपरेखा तैयार की। क्रांतिकारियों से लंबे विचार-विमर्श के बाद भगत सिंह ने स्वयं बम फेंकने की योजना बनाई, जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने उनका सहयोग किया। ‘बहरों को अपनी आवाज सुनाने के लिए’ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को निश्चित समय पर पूर्व तय योजनानुसार असैम्बली के खाली प्रांगण में हल्के ब’म फेंके, समाजवादी नारे लगाए, अंग्रेजी सरकार के पतन के नारों को बुलन्द किया और पहले से तैयार छपे पर्चे भी फेंके। योजनानुसार दोनों देशभक्तों ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया ताकि वे खुलकर अंग्रेज सरकार को न्यायालयों के जरिए अपनी बात समझा सकें।

7 मार्च, 1929 को मुकद्दमे की सुनवाई अतिरिक्त मजिस्ट्रट मिस्टर पुल की अदालत में शुरू हुई। दोनों वीर देशभक्तों ने भरी अदालत में हर बार ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अपने पक्ष को रखा। अदालत ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अन्तर्गत मामला बनाकर सेशन कोर्ट को सौंप दिया। 4 जून, 1929 को सेशन कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। दोनों पर गंभीर आ’रोप लगाए गए। क्रांतिकारी भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने हर आ’रोप का सशक्त खण्डन किया। अंत में 12 जून, 1929 को अदालत ने अपना 41 पृष्ठीय फैसला सुनाया, जिसमें दोनों क्रांतिकारियों को धारा 307 व विस्फोटक पदार्थ की धारा 3 के अन्तर्गत उम्रकैद की सजा दी। इसके तुरंत बाद भगत सिंह को पंजाब की मियांवाली जेल में और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर सेन्ट्रल जेल में भेज दिया गया। इन क्रांतिकारियों ने अपने विचारों को और ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए हाईकोर्ट में सेशन कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की। अंततः 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने भी सुनियोजित अंग्रेजी ष’ड़यंत्र के तहत उनकी अपील खारिज कर दी। इसी बीच जेल में भगत सिंह ने भूख हड़’ताल शुरू कर दी।

इसी दौरान ‘साण्डर्स-ह’त्या’ केस की सुनवाई शुरू की गई। एक विशेष न्यायालय का गठन किया गया। अपने मनमाने फैसले देकर अदालत ने भगत सिंह के साथ राजगुरु व सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र केस में दोषी ठहराकर सजा ए मौ’त का हुक्म सुना दिया। पं. मदन मोहन मालवीय ने फैसले के विरुद्ध 14 फरवरी, 1931 को पुनः हाईकोर्ट में अपील की। लेकिन अपील खारिज कर दी गई। जेल में भगत सिंह से उनके परिवार वालों से मिलने भी नहीं दिया गया। भगत सिंह का अपने परिवार के साथ अंतिम मिलन 3 मार्च, 1931 को हो पाया था।

इसके बीस दिन बाद 23 मार्च, 1931 को जालिम अंग्रेजी सरकार ने इन क्रांतिकारियों को निर्धारित समय से पूर्व ही फांसी के फन्दे पर लटका दिया और देश में कहीं क्रांति न भ’ड़क जाए, इसी भय के चलते उन शहीद देशभक्तों का दाह संस्कार भी फिरोजपुर में चुपके-चुपके कर दिया। इस तरह सरदार भगत सिंह ‘शहीदे आज़म’ के रूप में भारतीय इतिहास में सदा सदा के लिए अमर हो गये। कल भी सरदार भगत सिंह सबके आदर्श थे, आज भी हैं और आने वाले कल में भी रहेंगे, क्योंकि उन जैसा क्रांतिवीर न कभी पैदा हुआ है और न कभी होगा।

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