कभी भरपेट नहीं मिलता था खाना..पिता के जाने के बाद कंधों पर आई जिम्मेदारी ने IAS बना दिया

New Delhi : ये कहानी 2007 में 5वीं रैंक हासिल कर IAS बनने वाले शशांक मिश्रा की है। शशांक ने ये कामयाबी आर्थिक तंगी के वाबजूद, सभी मुश्किल हालात को हराकर हासिल की। शशांक मिश्रा मूलरूप से उत्तर प्रदेश के मेरठ से हैं। उनके पिता कृषि डिपार्टमेंट में डिप्टी कमिश्नर थे। शशांक की ज़िंदगी की गाड़ी भी किसी साधारण बच्चे की तरह पटरी पर थी। शशांक 12वीं में थे और साथ-साथ आईआईटी में दाखिले के लिये तैयारी कर रहे थे। तभी ज़िंदगी ने करवट ली और पिता का साया सिर से उठ गया। पिता के जाने के बाद शशांक पर अपनी पढ़ाई की जिम्मेदारी तो आ ही गई, साथ ही तीनों भाई-बहन की जिम्मेदारी भी उन पर आ गई।

पिता के जाने के बाद सिर्फ जिम्मेदारियां निभाने का दौर ही शुरू नहीं हुआ, तभी से उनकी ज़िंदगी में आर्थिक तंगी का दौर भी शुरू हुआ। जिंदगी के इस मुश्किल भरे दौर में उनके लिये फीस तक भरना तक मुश्किल था। लेकिन कहते हैं न “अंधे का खुदा रखवाली”। उस मुश्किल दौर में शशांद को भी थोड़ी राहत मिली। 12वीं में उनके नंबर अच्छे। जिस वजह से कोचिंग की फीस कम कर दी गई।
शशांक ने पूरी मेहनत से पढ़ाई की। आईआईटी के एंट्रेंस में 137वीं रैंक आई। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग से बीटेक किया था। अमेरिका की मल्टी नेशनल कंपनी में नौकरी लगी। लेकिन शायद तब तक वे सिविल सर्विस में जाने के अपने इरादों को पुख्ता कर चुके थे। उन्होंने यूएस कंपनी की अच्छे पैकेज की नौकरी जॉइन नहीं की। 2004 से यूपीएससी की तैयारी शुरू की। आर्थिक तंगी जस की तस थी।
शंशाक ने दिल्ली के एक कोचिंग सेंटर में पढ़ाना शुरू किया। लेकिन आमदनी इतनी नहीं थी कि दिल्ली रह सके। रोज मेरठ से दिल्ली आते-जाते थे। आने-जाने में जो समय लगता, उस दौरान ट्रेन में खुद पढ़ाई करते। दो साल इसी तरह गुजारे। तैयारी भी की। तैयारी के दौरान आलम ये था कि भरपेट खाना नसीब नहीं होता था। रास्ते में भूख लगती तो भी उतने पैसे नहीं होते थे कि भरपेट खाना खा सकें। शशांक अकसर बिस्किट खाकर गुजारा करते थे।

पर कहते हैं न, सब्र का फल मीठा होता है। शशांक की मेहनत रंग लाई। पहले अटेंप्ट में एलाइड सर्विस में सेलेक्शन हो गया। लेकिन इसके बाद भी वे नहीं रुके। 2007 में दूसरे प्रयास में 5वीं रैंक हासिल कर आईएएस बने। शशांक फिलहाल मध्य प्रदेश में उज्जैन जिले के कलेक्टर हैं।

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