New Delhi : महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद कायरतापूर्वक पांडवों के सोये हुये पुत्रों की उनके मामा धृष्टधुम्न के साथ जला देनेवाले द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को महसूस करना हो तो उत्तरप्रदेश के इटावा जिले में यमुना नदी के तट पर स्थित कालीवाहन मंदिर चले जाइये। किंवदंती है कि इस मंदिर में नवरात्र के दिनों में अश्वत्थामा प्रतिदिन सुबह पूजा करने आता है। महाभारत के मुताबिक पांडवों से बचने के लिये अश्वत्थामा महर्षि वेदव्यास के आश्रम में जा छुपा, लेकिन भगवान कृष्ण की सहायता से पांडवों ने उसे ढूंढ निकाला। पांडवों ने उसके सिर में जन्म से जड़ी हुई उस मणि को उससे छीन लिया, जिसकी वजह से वह बलशाली था।
वेदव्यास ने उसे शाप दिया कि वह इस पाप का फल भोगने के लिये अमर रहेगा और युग युगों तक मोक्ष की भीख मांगेगा। कहा जाता है कि अश्वत्थामा इटावा के इस मंदिर में मां काली से मोक्ष की भीख मांगने आता है, लेकिन उसे मोक्ष नहीं मिल पा रही है। इटावा मुख्यालय से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर यमुना नदी के किनारे बसे इस मंदिर का नवरात्रि के मौके पर खासा महत्व हो जाता है। अपनी मनोकामना को पूरा करने के इरादे से दूर दराज से भक्तगण यहां आकर मां काली के चरणों में अपना शीश नवाते हैं। असल में दूरदराज के क्षेत्रों तक में ख्यातिप्राप्त कालीवाहन मंदिर का एक अलग महत्व है। नवरात्रि के दिनों में तो इस मंदिर की महत्ता अपने आप में खास बन पड़ती है।
40 साल से इस मंदिर में सेवा कर रहे पुजारी राधेश्याम द्विवेदी का कहना है कि आज तक इस बात का पता नही लग सका है कि आखिर रात के अंधेरे में जब मंदिर को धोने के बाद साफ कर दिया जाता है तो तड़के गर्भगृह खोला जाता है तो उस समय मंदिर के भीतर ताजे फूल कैसे मिलते हैं। इससे साबित होता है कि कोई अदृश्य रूप में आकर पूजा करता है । अदृश्य रूप मे पूजा करने वाले के बारे मे कहा जाता है कि महाभारत के अमर पात्र अश्वश्थामा मंदिर मे पूजा करने के लिये आते हैं।
कभी चंबल के बागियों की आस्था का केंद्र रहे महाभारत कालीन सभ्यता से जुडे इस मंदिर से डाकुओं को इतना लगाव रहा है कि वो अपने गैंग के साथ आकर पूजा अर्चना करने में पुलिस की चौकसी के बावजूद कामयाब हुये लेकिन इस बात की पुष्टि तब हुई जब मंदिर में डाकुओ के नाम के घंटे और झंडे चढे हुये देखे गये। शक्ति मत में दुर्गा-पूजा के प्राचीनतम स्वरूप की इटावा कालीवाहन मन्दिर अभिव्यक्ति है।
इटावा के गजेटियर में इसे काली भवन का नाम दिया गया है । यमुना के तट के निकट स्थित यह मंदिर देवी भक्तों का प्रमुख केन्द्र है । इष्टम अर्थात शैव क्षेत्र होने के कारण इटावा में शिव मंदिरों के साथ दुर्गा के मंदिर भी बड़ी सख्या में हैं। महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती की प्रतिमायें है, इस मंदिर में स्थापित प्रतिमायें 10 वीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य की है।
मंदिर में देवी की तीन मूर्तियाँ महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती की हैं। महाकाली का पूजन शक्ति धर्म के आरंभिक रूवरूप की देन है। मार्कण्डेय पुराण एवं अन्य पौराणिक कथानकों के अनुसार दुर्गा जी प्रारम्भ में काली थी। एक बार वे भगवान शिव के साथ आलिंगनबद्ध थीं, तो शिवजी ने परिहास करते हुए कहा कि ऐसा लगता है जैसे श्वेत चंदन वृक्ष में काली नागिन लिपटी हुई हो। पार्वती जी को क्रोध आ गया और उन्होंने तपस्या के द्वारा गौर वर्ण प्राप्त किया। महाभारत में उल्लेख है कि दुर्गाजी ने जब महिषासुर तथा शुम्भ-निशुम्भ का वध कर दिया, तो उन्हें काली, कराली, काल्यानी आदि नामों से भी पुकारा जाने लगा।
@Uppolice @etawahpolice कालीवाहन मंदिर में इस समय पर्याप्त भीड़ है ३/४ महिलाएँ दर्शनार्थी और १/४ पुरुष , लेकिन महिला पुलिस शून्य, @dgpup pic.twitter.com/qkXz4TM5zJ
— राहुल कुदेशिया Rahul Kudeshiya (@rahulkudeshiya) September 29, 2017
कालीवाहन मंदिर के बारे में जनश्रुति है, कि प्रात काल जब भी मंदिर का गर्भगृह खोला जाता है, तो मूर्तियॉ पूजित मिलती हैं। कहा जाता है कि द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वमत्थामा आकर इन मूर्तियों की पूजा करता है। कालीवाहन मंदिर श्रद्धा का केन्द्र है। नवरात्रि के दिनों में यहाँ बड़ी संख्या में श्रृद्धालु आते हैं। यह मंदिर काफी पहले से सिनेमाई निर्देशको के आकर्षण का केंद्र बना रहा है । डाकुओ पर बनी कई फिल्मो की शूटिंग इस मंदिर परिसर मे हो चुकी है । निर्माता निर्देशक कृष्णा मिश्रा की फिल्म बीहड की भी फिल्म का कुछ हिस्सा इस मंदिर मे फिल्माया गया है । बीहड नामक यह फिल्म 1978 से 2005 के मध्य चंबल घाटी मे सक्रिय रहे डाकुओ की जिंदगी पर बनी है ।