New Delhi : हाईड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन कहें या एचक्यूसी। यह एक ऐसी मलेरिया-रोधी दवा है जिसे कोरोना वायरसमहामारी से निपटने का बड़ा हथियार माना जा रहा है। इस दवाई के लिये सिर्फ अमेरिका यूरोप नहीं बल्कि पूरी दुनिया भारत को शुक्रिया कह रही है। लेकिन इसी चर्चा के बीच आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय द्वारा स्थापित एक कंपनी ने सबका ध्यान खींचा है। प्रफुल्ल चद्र राय को भारतीय रसायन शास्त्र का जनक माना जा सकता है।
कोलकाता स्थिति बेंगाल केमिकल्स एंड फर्मास्युटिकल्स लिमिटेड मलेरिया निरोधी दवा बनाने वाली भारत की एक मात्र सरकारी ईकाई है। कंपनी ने कोरोना वायरस से बढ़ी हाईड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन की मांग को लेकर कहा है कि वह फिर से मलेरियारोधी दवा बनाने की लाइसेंस के लिए आवेदन करेगी। बेंगाल केमिकल्स ने एचक्यूसी बनाना शुरू किया था लेकिन दशकों पहले इसका उत्पादन बंद कर दिया था। 2 अगस्त 1861 को जन्मे प्रफुल्ल चंद्र राय ने अपने निजी प्रयासों से एक लैब में 1892 में बेंगाल केमिकल्स एंड फर्मास्युटिकल्स की स्थापना की। इस काम के पीछे उनकी सोच थी कि बेंगाल के युवाओं में इंटरप्रिन्योशिप की भावना पैदा की जा सके।
1887 में ईडनबर्ग युनिवर्सिटी से उन्होंने डीएससी की डिग्री लेने के बाद प्रेसिडेंसी कॉलेज में कैमिस्ट्री पढ़ाने लगे। 1892 में कुल 700 रुपए की पूंजी के साथ उन्होंने बेंगाल केमिकल वर्क्स की शुरुआत की और इसके हर्बल उत्पादों को मेडिकल कांग्रेस के 1893 में हुए अधिवेशन में प्रस्तुत किया। दवाइयां बनाने की दिशा में प्रफुल्ल चंद्र राय जो छोटा सा प्रयास किया था उसे दो लाख रुपए की लागत के साथ 1901 में बेंगाल केमिकल्स एंड फर्मास्युटिकल वर्क्स प्राइवेट लिमिटेड के रूप में खड़ा कर दिया।
जॉन कमिंग ने ‘Review of the Industrial Position and Prospects in Bengal’ में लिखा है कि 1908 में राय की कंपनी ने बंगाल के औद्योगिक घरानों में अपनी पहचान बना ली थी। राय की दूरगामी सोच के नेतृत्व में बेंगाल केमिकल्स काफी तेजी से बढ़ी और अपनी पहली फैक्ट्री कोलकाता के मनिकलता में 1905 में स्थापित कर दी थीं। उन्होंने दूसरी फैक्ट्री पानीहाटी में 1920 में लगाई और फिर 1938 में तीसरी फैक्ट्री मुंबई में स्थापित कर दी थी। प्रफुल्ल चंद्र राय ने इस दौरान कई किताबें भी लिखीं जिनमे से एक है History of Hindu Chemistry – From the Earliest Times to the Middle of the Sixteenth Century AD’ । यह एक ऐसी किताब है जिसमें भारत की वैदिककालीन महान रसायनिक प्रयोगों और प्रचलन को डॉक्युमेंटेड किया था।
आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। ये आधुनिक भारत की पहली पीढ़ी के वैज्ञानिक थे जिनके कार्यों और आदर्शों से भारतीय विज्ञान को एक नई दिशा मिली। इन वैज्ञानिकों में आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का नाम गर्व से लिया जाता है। वे वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक महान देशभक्त भी थे। सही मायनों में वे भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतीक थे। इनका जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर जिले के ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांगलादेश में है तथा खुल्ना जिले के नाम से जाना जाता है। उनके पिता हरिश्चंद्र राय इस गाँव के प्रतिष्ठित जमींदार थे। वे प्रगितशील तथा खुले दिमाग के व्यक्ति थे। आचार्य राय की माँ भुवनमोहिनी देवी भी एक प्रखर चेतना-सम्पन्न महिला थीं।
आचार्य राय की अध्ययन में बड़ी रुचि थी। वे बारह साल की उम्र में ही चार बजे सुबह उठ जाते थे। पाठ्य-पुस्तकों के अलावा वे इतिहास तथा जीवनियों में अधिक रुचि रखते थे। ‘चैम्बर्स बायोग्राफी’ उन्होंने कई बार पढ़ी थी। वे सर डब्ल्यू. एम. जोन्स, जॉन लेडेन और उनकी भाषायी उपलब्धियों, तथा फ्रैंकलिन के जीवन से काफी प्रभावित थे। सन् 1879 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर आगे की पढ़ाई मेट्रोपोलिटन कॉलेज (अब विद्यासागर कॉलेज) में शुरू की।
उसी समय प्रफुल्ल चंद्र के मन में गिलक्राइस्ट छात्रवृत्ति के इम्तहान में बैठने की इच्छा जगी। यह इम्तहान लंदन विश्वविद्यालय की मैट्रिक परीक्षा के बराबर माना जाता था। इस इम्तहान में लैटिन या ग्रीक, तथा जर्मन भाषाओं का ज्ञान होना जरूरी था। अपने भाषा-ज्ञान को आज़माने का प्रफुल्ल के लिए यह अच्छा अवसर था। इस इम्तहान में सफल होने पर उन्हें छात्रवृत्ति मिल जाती और आगे के अध्ययन के लिए वह इंग्लैंड जा सकते थे। आखिर अपनी लगन एवं मेहनत से वह इस परीक्षा में कामयाब रहे। इस प्रकार वे इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। नया देश, नए रीति-रिवाज़, पर प्रफुल्लचंद्र इन सबसे ज़रा भी चिंतित नहीं हुए। अंग्रेजों की नकल उतारना उन्हें पसंद नहीं था, उन्होंने चोगा और चपकन बनवाई और इसी वेश में इंग्लैंड गए। उस समय वहाँ लंदन में जगदीशचंद्र बसु अध्ययन कर रहे थे। राय और बसु में परस्पर मित्रता हो गई।
प्रफुल्ल चंद्र राय को एडिनबरा विश्वविद्यालय में अध्ययन करना था जो विज्ञान की पढ़ाई के लिए मशहूर था। वर्ष 1885 में उन्होंने पीएच0डी0 का शोधकार्य पूरा किया। तदनंतर 1887 में “ताम्र और मैग्नीशियम समूह के ‘कॉन्जुगेटेड’ सल्फेटों” के बारे में किए गए उनके कार्यों को मान्यता देते हुए एडिनबरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी0एस-सी0 की उपाधि प्रदान की। सन् 1933 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक तथा रेक्टर पं. मदन मोहन मालवीय ने आचार्य राय को डी0एस-सी0 की मानद उपाधि से विभूषित किया। वे देश विदेश के अनेक विज्ञान संगठनों के सदस्य रहे।
एक दिन आचार्य राय अपनी प्रयोगशाला में पारे और तेजाब से प्रयोग कर रहे थे। इससे मर्क्यूरस नाइट्रेट नामक पदार्थ बनता है। इस प्रयोग के समय डा. राय को कुछ पीले-पीले क्रिस्टल दिखाई दिए। वह पदार्थ लवण भी था तथा नाइट्रेट भी। यह खोज बड़े महत्त्व की थी। वैज्ञानिकों को तब इस पदार्थ तथा उसके गुणधर्मों के बारे में पता नहीं था। उनकी खोज प्रकाशित हुई तो दुनिया भर में डा. राय को ख्याति मिली। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया था। वह था अमोनियम नाइट्राइट का उसके विशुद्ध रूप में संश्लेषण। इसके पहले माना जाता था कि अमोनियम नाइट्राइट का तेजी से तापीय विघटन होता है तथा यह अस्थायी होता है। राय ने अपने इन निष्कर्षों को फिर से लंदन की केमिकल सोसायटी की बैठक में प्रस्तुत किया। डा. राय ने स्वदेशी उद्योग की नींव डाली। उन्होंने 1892 में अपने घर में ही एक छोटा-सा कारखाना निर्मित किया। उन्होंने एक लघु उद्योग के रूप में देसी सामग्री की मदद से औषधियों का निर्माण शुरू किया। बाद में इसने एक बड़े कारखाने का स्वरूप ग्रहण किया जो आज “बंगाल केमिकल्स ऐण्ड फार्मास्यूटिकल वर्क्स” के नाम से सुप्रसिद्ध है। उनके द्वारा स्थापित स्वदेसी उद्योगों में सौदेपुर में गंधक से तेजाब बनाने का कारखाना, कलकत्ता पॉटरी वर्क्स, बंगाल एनामेल वर्क्स, तथा स्टीम नेविगेशन, प्रमुख हैं।