मुगल दरबार के कवि अब्दुर रहमान ने लिखा है – इस दुनिया में सभी चीज खत्म होने वाली है। धन-दौलत खत्म हो जाएंगे लेकिन महान इंसान के गुण हमेशा जिंदा रहेंगे। महाराणा प्रताप ने धन-दौलत को छोड़ दिया लेकिन अपना सिर कभी नहीं झुकाया। अंत तक उन्होंने अपना सम्मान कायम रखा।
New Delhi : एक बार अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भारत के दौरे पर आ रहे थे, तो उन्होंने अपनी मां से पूछा… मैं आपके लिए भारत से क्या लेकर आऊं, तो उनकी मां ने कहा था भारत से तुम हल्दीघाटी की मिट्टी लेकर आना जिसे हजारों वीरों ने सींचा है। लेकिन, इन सब के उपरांत भी इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में महाराणा प्रताप की वीरता के अध्याय पढ़ाने की बजाय अकबर की महानता के किस्से पढ़ाना इस सच्चे राष्ट्रनायक के बलिदान के साथ नाइंसाफी है।
भारत माता के महान सपूत महाराणा प्रताप को उनकी जयंती पर कोटि-कोटि नमन। देशप्रेम, स्वाभिमान और पराक्रम से भरी उनकी गाथा देशवासियों के लिए सदैव प्रेरणास्रोत बनी रहेगी।
— Narendra Modi (@narendramodi) May 9, 2020
बहरहाल महाराणा प्रताप उन चुनिंदा शासकों में से एक हैं जिनकी वीरता, शौर्य-पराक्रम के किस्से और गौरवमयी संघर्ष गाथा को सुनकर हर किसी के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अमर राष्ट्रनायक, दृढ़ प्रतिज्ञ और स्वाधीनता के लिए जीवन भर मुगलों से मुकाबला करने वाले साहसिक रणबांकुर महाराणा प्रताप को जंगल-जंगल भटक कर घास की रोटी खाना मंजूर था, लेकिन किसी भी परिस्थिति व प्रलोभन में अकबर की अधीनता को स्वीकार करना कतई मंजूर नहीं था। महाराणा प्रताप जब चित्तौरगढ़ की गद्दी पर आसीन थे और हल्दीघाटी में उनका मुग़लों के साथ एक भीषण टकराव देखने को मिला, तब उनका कौशल पूरे भारत में विख्यात हुई और अकबर के ख़िलाफ़ तलवार उठाने के लिए इतिहास में उन्हें एक महान नायक के रूप में जाना गया। हालाँकि, महाराणा के नेतृत्व गुण और बुद्धिबल की चर्चा तभी से थी, जब वो किशोरावस्था में थे। लेकिन, सिंहासन धारण करने के बाद उन्होंने इस सभी चीजों को वास्तविक जीवन में सफलतापूर्वक उतार कर दिखाया।
Remembering #MaharanaPratap,the ruler of Mewar on his 480th birth anniversary.The biggest warrior is known for his bravery and courage,who never accepted the mughal rule in India and refused to surrender to Emperor Akbar and fought the battle of Haldighati#MahaRanaPratapJayanti pic.twitter.com/MSRtO3bA4X
— Ishika Tyagi (@IshikaTyagi04) May 8, 2020
9 मई, 1540 ईसवी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में पिता उदयसिंह की 33वीं संतान और माता जयवंताबाई की कोख से जन्मे मेवाड़ मुकुट-मणि महाराणा प्रताप जिन्हें बचपन में ‘कीका’ कहकर संबोधित किया जाता, जो अपनी निडर प्रवृत्ति, अनुशासन-प्रियता और निष्ठा, कुशल नेतृत्व क्षमता, बुजुर्गों व महिलाओं के प्रति विशेष सम्मानजनक दृष्टिकोण, ऊंच-नीच की भावनाओं से रहित, निहत्थे पर वार नहीं करने वाले, शस्त्र व शास्त्र दोनों में पारंगत एवं छापामार युद्ध कला में निपुण व उसके जनक थे।
महाराणा प्रताप कुटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, मानसिक व शारीरिक क्षमता में अद्वितीय थे। उनकी लंबाई 7 फीट और वजन 110 किलोग्राम था तथा वे 72 किलो के छाती कवच, 81 किलो के भाले, 208 किलो की दो वजनदार तलवारों को लेकर चलते थे। उनके पास उस समय का सर्वश्रेष्ठ घोड़ा ‘चेतक’ था, जिसने अंतिम समय में जब महाराणा प्रताप के पीछे मुगल सेना पड़ी थी तब अपनी पीठ पर लांघकर 26 फीट ऊंची छलांग लगाकर नाला पार कराया और वीरगति को प्राप्त हुआ। जबकि इस नाले को मुगल घुड़सवार पार नहीं कर सकें।
This is the magnificent & auspicious Fort where #MaharanaPratap who is pride of our Sanatan Clan was born.
Kumbhalgarh Fort, Rajasthan🚩They may erase our history from the books but will not be able to erase the history of Maharana's Valor written on these walls for centuries! pic.twitter.com/TU9H4qRSU9
— Sanatana Dharma (@SanatanDharma4U) May 5, 2020
पिता उदयसिंह द्वारा अपनी सबसे छोटी पत्नी के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने से मेवाड़ की जनता असहमत थी। महाराणा प्रताप ने मेवाड़ छोड़ने का निर्णय किया लेकिन जनता के अनुनय-विनय के बाद वे रुक गए और 1 मार्च, 1573 को उन्होंने सिंहासन की कमान संभाली। उस समय दिल्ली में मुगल शासक अकबर का राज था और उसकी अधीनता कई हिन्दू राजा स्वीकार करने के लिए संधि-समझौता कर रहे थे, तो कई मुगल औरतों से अपने वैवाहिक संबंध स्थापित करने में लगे थे। लेकिन इनसे अलग महाराणा प्रताप को अकबर की दासता मंजूर नहीं थी। इससे आहत होकर अकबर ने मानसिंह और जहांगीर की अध्यक्षता में मेवाड़ में अपनी सेना भेजी। 18 जून, 1576 को आमेर के राजा मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मुगल सेना और महाराणा प्रताप के बीच हल्दीघाटी का युद्ध हुआ। माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर की जीत हो सकी और न ही महाराणा प्रताप की हार हो सकी। एक तरफ अकबर की विशालकाय, साजो-सामान से सुरक्षित सेना थी तो दूसरी ओर महाराणा प्रताप की जुझारू सैनिकों की फौज थी। हल्दीघाटी के ऐतिहासिक युद्ध के बाद महाराणा प्रताप परिवार सहित जंगलों में विचरण करते हुए अपनी सेना को संगठित करते रहे। एक दिन जब उन्होंने अपने बेटे अमरसिंह की भूख शांत करने के लिए घास की रोटी बनाई तो उसे भी जंगली बिल्ली ले भागी। इससे विचलित होकर महाराणा प्रताप का स्वाभिमान डगमगाने लगा। उनके हौसले कमजोर पड़ने लगे।
🙏🚩 tributes to one of the greatest king of all time Maharana Pratap singh 🙏🇮🇳
"नीले घोड़े रा असवार करा थारी मनवार बाबा महारे घर आओ जी" 🙏🚩
#MahaRanaPratapJayanti , #Maharanapratap pic.twitter.com/5pVWH5ZGFI— Hindu Jadoo guy🧞♂ (@thejadooguy) May 9, 2020
ऐसी अफवाह फैल गई कि महाराणा प्रताप की विवशता ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। तभी बीकानेर के कवि पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा को पत्र लिखकर उनके सुप्त स्वाभिमान को पुन: जगा दिया। फिर महाराणा प्रताप को अकबर अधीन करने में असफल ही रहा।
अंततः महाराणा प्रताप का अवसान अपनी राजधानी चावंड में धनुष की डोर खींचने से उनकी आंत में लगी चोट के कारण हुआ। इलाज के बाद 57 वर्ष की उम्र में 29 जनवरी, 1597 को वे स्वर्ग सिधारे। कहते हैं महाराणा प्रताप के अवसान का समाचार सुनकर अकबर की आंखों में भी प्रताप की अटल देशभक्ति की सोचकर आंसू छलक आये थे। धरती के इस वीर पुत्र के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी कि जब उसकी महानता व माटी के प्रति कृतज्ञता की कहानी हरेक जन तक पहुंचाई जाएगी।